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व्यर्थ है दाता बनने का अभिमान

योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’

आज हम सभी भौतिकता में इस कदर खो गए हैं कि एक पल के लिए भी अपने अंतर्मन में झांकने की फुर्सत हमें नहीं मिल पाती। दूसरे शब्दों में सच तो यह है कि अभिमान का चश्मा आज इतना सस्ता हो गया है कि हर कोई बड़ी सरलता से उसे अपनी आंखों पर चढ़ा लेता है और खुद को ही इस संसार का नियंता और सबसे बड़ा कर्त्ता मान बैठता है। जाने क्यों, आदमी इस संसार की उस सच्चाई को क्यों भूल बैठा है, जो कबीर ने उसे बताई थी और फिर भी चेताया था :-
‘कबीरा गर्व न कीजिए, काल गहे कर केस।
ना जाने कित मारिहै, क्या घर, क्या परदेस।’
अब करें भी क्या? स्वयं को ही ‘कर्त्ता’ समझने का यह भाव आदमी को ज्ञानी होते हुए भी अपमानित करवाता आया है। लेकिन हम उससे कोई सबक नहीं सीखते। कुछ दिन पूर्व मुझे ‘उपनिषद’ में आई महान ज्ञानी याज्ञवल्क्य की बहुत ही प्यारी और प्रेरक कथा पढऩे को मिली, कथा कुछ इस प्रकार है—
महर्षि याज्ञवल्क्य प्रकांड महाज्ञानी और तर्कशास्त्र में पूर्णत: पारंगत ऋषि थे। एक बार राजा जनक ने सौ गायों के सींगों को सोने से मढ़वा कर, उनके ऊपर अथाह सोना-चांदी रखवा दिया और उन सारी गायों को धूप में खड़ा करवा दिया। राजा जनक ने घोषणा कराई कि जो भी विद्वान शास्त्रार्थ में विजयी होगा, वही इन सुवर्ण से लदी गायों को साथ ले जाएगा। कालांतर सुबह से दोपहर हो गई, लेकिन कोई भी विद्वान शास्त्रार्थ के लिए आया ही नहीं। वहीं दूसरी ओर सारी गायें भूखी-प्यासी धूप में खड़ी व्याकुल हो रही थीं। लेकिन राजा के निर्देशों के चलते किसी ने उन्हें नहीं हटाया ताकि वे कुछ राहत पा सकें।
तभी ऋषि याज्ञवल्क्य वहां आए और गायों की दशा देखकर विचलित हुए। ऋषि याज्ञवल्क्य अपने शिष्यों से बोले कि इन निरीह गायों को भूखा-प्यासा धूप में खड़ा किया हुआ है और ये प्यास से बेहाल हैं, तुम इन्हें खोल कर ले जाओ। कुछ पंडितों ने राजा जनक से शिकायती लहजे में कहा भी कि बिना विजयी हुए ऋषि याज्ञवल्क्य गायों को कैसे ले जा सकते हैं? किंतु राजा जनक भी ऋषि याज्ञवल्क्य कहीं नाराज न हो जायें कुछ नहीं कह पाए और विद्वान याज्ञवल्क्य शास्त्रार्थ में विजय से पूर्व ही भूख और प्यास से बेहाल गायों को खोलकर ले गए। बाद में, यही महर्षि याज्ञवल्क्य जनक के शास्त्रार्थ में विजयी हुए।
ऐसे महान ज्ञानी याज्ञवल्क्य अपने जीवन के अंतिम समय को देखकर, जब संन्यास लेकर वन में जाने लगे तो उन्होंने अपनी दोनों पत्नियों को बुलाकर कहा कि मैं तो सब कुछ छोडक़र परमात्मा की साधना में लीन होने के लिए वन की ओर जा रहा हूं, इसलिए यह सारी धन-संपत्ति मैं तुम्हें सौंपता हूं। ऐसी स्थिति में मेरे लिए अब इस धन-संपदा का कोई मूल्य नहीं रह गया है।
महर्षि याज्ञवल्क्य के वन गमन और धन-संपत्ति सौंपने की बात सुनकर एक पत्नी तो बड़ी प्रसन्न हुई कि इतनी अपार धन-संपत्ति मिल रही है, लेकिन उनकी दूसरी पत्नी परम विदुषी थी। उसने ऋषि से पूछा— हे महाऋर्षि, आप ही कहते हैं कि यह धन-संपत्ति आपके लिए मूल्यवान नहीं है, तब यह कचरा आप हमें क्यों दे रहे हैं?’ अपनी पत्नी का यह तार्किक प्रश्न सुनकर याज्ञवल्क्य गहरी सोच में पड़ गए और उन्होंने अपनी विदुषी पत्नी को कहा-आज तुमने तो मेरी आंखें खोल दी हैं। मैं तो स्वयं को तुम्हारा पालनकर्ता मान कर अभिमान में भरकर यह धन-संपत्ति छोड़ रहा था, जबकि तुमने इस धन-संपदा को कचरा बता कर मुझे ही निरुत्तर कर दिया है। सही मायनों में तुम तो मेरी गुरु हो।
इस बोधकथा को पढक़र यही लगा कि निस्संदेह हम व्यर्थ ही कुछ सोने-चांदी के सिक्कों को पाकर स्वयं को संसार का पालनकर्त्ता मान बैठते हैं। लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि जो हमारे प्राणों की डोर अपने हाथों में पकड़े हुए बैठा है, सही मायनों में असली कर्त्ता तो ‘वही’ है। कविवर रहीम का एक बेहद सार्थक और प्रसिद्ध दोहा है, जिसमें मानव-जीवन का गहरा मर्म छिपा हुआ है :-
‘तरुवर फल नहिं खात हैं,
सरवर पियहिं न पान।
कहि रहीम पर-काज हित,
संपति संचहिं सुजान।’
महान ज्ञानी ऋषि याज्ञवल्क्य को तो उनकी विदुषी पत्नी ने ‘अभिमान-भाव’ की कारा से मुक्ति दिलाई और सच्चे अर्थों में परमात्मा के दर्शन कराए, ऐसे में हमारी आंखें सही मायनों में आखिर कब खुलेंगी? हकीकत में देखें तो हमारी जि़न्दगी तो ‘चार दिन की चांदनी’ का नाम ही है न? जब यह संसार ही क्षण भंगुर है, तब अभिमान कैसा और किसके लिये किया जाए? यह प्रश्न तो आपके अंतर्मन का भी है न? तब क्यों न, ऋषि याज्ञवल्क्य की कथा से ही जीवन का सच ले लें। साथ ही अपने जीवन का सार्थक बनाने का प्रयास करें। लेकिन एक हकीकत यह है कि सत्यबोध को जानते हुए भी हम भ्रम व अज्ञानता के चलते अनजान बने रहते हैं।

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