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एमएसपी को तार्किक व लाभप्रद बनाया जाए

प्रीतम सिंह, श्रुति भोगल

अब जबकि किसान आंदोलन ने तीन कृषि कानूनों को रद्द करवाने की ऐतिहासिक जीत प्राप्त कर ली है, तो यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम किसान आंदोलन में उठाए अन्य मुख्य मुद्दों पर ध्यान दें, इसमें न केवल न्यूनतम समर्थन मूल्य बल्कि अन्य व्यापक कृषि और विकास नीतियां भी शामिल हैं। कृषि संत्रास से मुक्ति हेतु सरकार का ध्यान अब सबको साथ लेकर कृषि नीति बनाने की तरफ अधिक होना जरूरी हो जाता है। सावधानीपूर्वक बनाई बृहद कृषि नीति में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) व्यवस्था कायम करना अभिन्न अंग हो। एमएसपी और सार्वजनिक खरीद व्यवस्था (पीपीएस) के मिश्रण से काम करने वाली कृषि उत्पाद विपणन मंडी (एपीएमसी) आवश्यक रूप से प्रासंगिक है, इसमें आगे और सुधार करके फसल विविधता को बढ़ावा, जैव विविधता संरक्षण और पर्यावरण संरक्षण के उद्देश्य प्राप्त हो सकते हैं। एमएसपी और पीपीएस वाली मौजूदा नीति गेहूं और चावल के अलावा अन्य फसलों पर लागू न होने का नतीजा है कि पंजाब की कृषि योग्य 90 फीसदी भूमि पर खेती गेहूं-चावल चक्र तक सीमित होकर रह गई है। इसका हल इन दोनों जिन्सों के अलावा अन्य उपजों को भी एमएसपी और पीपीएस के दायरे में लाकर किसान को प्रोत्साहित करने में है। इस दो फसलीय चक्र में, खासकर पानी डकारने वाली खरीफ को छोडऩे के पर्यावरणीय लाभ हैं। इससे भूमिगत पानी की उपलब्धता सतत बनाने और मिट्टी की सेहत में सुधार होगा।

फसल चक्र में विविधता लाना, भोजन की पौष्टिकता में सुधार करने के लिए भी जरूरी है। यह पंजाब और हरियाणा के लिए विशेष रूप से प्रासंगिक है, जहां खुराक अब ज्यादातर अन्न आधारित है, जबकि इसको पौष्टिकता के नजरिए से नाकाफी माना जाता है, लिहाजा यह कमी बहुत-सी बीमारियां पैदा करने में हिस्सेदार है।
दरअसल, इस क्षेत्र के पर्यावरण में ह्रास के लिए जिम्मेवार चावल की बुवाई त्यागकर फसल चक्र में विविधता बनाने की जरूरत की शिनाख्त काफी पहले हो चुकी है। खरीफ की फसल की कटाई के बाद पराली भी बहुत ज्यादा बचती है, जिससे निपटने को किसान आग लगाते हैं, लेकिन इससे न केवल मिट्टी की उर्वरता बल्कि इंसान के स्वास्थ्य को भी नुकसान होता है। परंतु वैकल्पिक फसलों के लिए प्रभावशाली पीपीएस और एमएसपी व्यवस्था न होना जिंस-विविधता बनाने में अड़चन है। एमएसपी आर्थिक और पर्यावरणीय रूप से प्रभावशाली तभी होगी जब खेती किसान के लिए एक फायदेमंद धंधा बने। इस मंतव्य की पूर्ति के लिए स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश को ध्यान में रखा जाए, जिसमें एमएसपी तय करने को सी-2+50 फीसदी फार्मूले को सुझाया गया था।

नये समीकरण में सी-2 के अंतर्गत एमएसपी अनुमान लगाते वक्त गिने जाने वाले मौजूदा कारकों से अतिरिक्त लागतों को शामिल करना होगा। फिलहाल एमएसपी की गणना ए-2+एफएल+50 प्रतिशत से की जा रही है। इसमें ए-2 का मतलब है किसान द्वारा वहन किया ‘वास्तविक खर्च’ और एफएल (फैमिली लेबर) है उपज हेतु किसान परिवार द्वारा की गई मेहनत का अनुमानित मुआवज़ा, इन दोनों मदों में 50 प्रतिशत जोडक़र एमएसपी तय की जा रही है। इस ‘वास्तविक खर्च’ (ए-2) में खेत मजदूर का वेतन, अपनी और किराए की मशीनरी पर खर्च, बीज, कीटनाशक, घरेलू और बाजारी खाद, उर्वरक, सिंचाई व्यय, मशीनरी और खेत में बनी इमारत का अवमूल्यन, भूमि लगान, कार्य पूंजी पर लगने वाला ब्याज़, अन्य खर्च जैसे कि रख-रखाव मद और अंत में लीज़ पर ली जमीन का किराया को गिना जाता है। लेकिन ए-2+एफएल फार्मूले में अभी भी तमाम बाकी खर्च शामिल नहीं है। इसकी बनिस्बत सी-2 में ए-2 वाले+एफएल+अन्य लागतें जैसे कि मालिकाना पूंजीगत संपत्ति (जमीन के अलावा) के मूल्य पर ब्याज + मालिकाना जमीन का बनता किराया भी जोड़ा गया है। अन्य शब्दों में एमएसपी के लिए इस्तेमाल हो रहा मौजूदा ए-2+एफएल वाला फार्मूला कृषक से कमाई को लाभप्रद नहीं बनाता, क्योंकि इससे किसान की लागत तक पूरी नहीं होती। दरअसल, एमएसपी तय करने में किसानों द्वारा वहन किए गए किन सभी खर्चों को शामिल करना चाहिए, इस बाबत वर्ष 2015 में रमेश चंद कमेटी बनाई गई थी।

इसकी रिपोर्ट में एमएसपी को लाभप्रद बनाने हेतु अन्य लागतें सूची में शामिल की गईं। इससे मुताबिक, पिछले सी-2 अवयवों में कृषक परिवार के मुखिया का मेहताना कुशल कारीगर वाला गिनना, कार्य पूंजी पर दिया ब्याज फसल के पूरे चक्र पर गिनना (अभी आधे फसल चक्र का सूद जोड़ते हैं), जमीन का बनता किराया सरकारी रेट वाला न मानकर वास्तविक दर जोडऩा, साफ-सफाई-छंटाई-पैकिंग मंडी पहुंचाने और माल ढुलाई की लागत को जोड़ा गया है। कमेटी ने किसान द्वारा वहनीय अन्य प्रबंधन सेवाएं और जोखिम हेतु सी-2 मद में अलग से 10 प्रतिशत जोडऩे की सिफारिश भी की है। एमएसपी कृषि व्यवसाय को सच में लाभप्रद बनाए, अतएव स्वामीनाथन कमेटी के सी-2 फार्मूले+रमेश चंद कमेटी के अवयव+50 प्रतिशत जोडक़र निर्धारित करने की सलाह दी गई है।

जिन मंडियों में खरीद या एमएसपी तय करने में सरकारें असफल रहें, वहां भरपाई एमएसपी और मौजूदा बाजार भाव के बीच का अंतर चुकाकर की जाए। ऐसी व्यवस्था मूल्य स्थिरता फंड के जरिए पहले से है, जिसका उद्देश्य मंडी में अचानक कीमतें गिरने की सूरत में किसान का घाटा पूरा करना है, लेकिन यह कुछ ही उत्पाद जैसे कि कॉफी, चाय, तंबाकू, प्याज़, आलू और दलहन पर लागू है। यह व्यवस्था तमाम फसलों के लिए होनी चाहिए।
चूंकि पंजाब के 90.5 प्रतिशत और हरियाणा के 75.5 प्रतिशत ग्रामीण परिवार खेती पर निर्भर हैं और अधिकांश गेहूं-चावल सरकार एपीएमसी मंडियों की मार्फत खरीदती है, एक कारगर एमएसपी बनाना और पीपीएस में सुधार करना कृषि आय और ग्रामीण आजीविका के लिए अत्यंत जरूरी है। यदि सभी फसलों के लिए एमएसपी व्यवस्था हो तो जैव विविधता अपनाने में प्रोत्साहन जगेगा।

बेशक निरस्त कृषि कानूनों पर ज्यादातर पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और राजस्थान मुखर रहे हैं, लेकिन इनका का सबसे बुरा असर अन्य राज्यों के छोटे और हाशिए पर आते किसानों पर होना था। खेती में विविधता बनाने को न केवल केंद्र सरकार की नीतियों की बल्कि राज्य सरकारों के सक्रिय दखल की दरकार है। केंद्र और राज्य, दोनों ही सरकारों को, अलग खित्तों से खरीदी जाने वाली फसल चुनने के लिए सूक्ष्म उपज क्रय योजना बनाने की जरूरत है। उक्त उपाय प्रतिस्पर्धात्मक मूल्य, कृषि-जलवायु और जल-भूगर्भीय सततता बनाने में योगदान करेंगे। इससे एमएसपी और पीपीएस की प्रभावशीलता, किसानों की भलाई और जैव विविधता को बढ़ावा मिलेगा और यह पर्यावरणीय सततता में भागीदार होगी। एमएसपी व्यवस्था भारतीय कृषि का मूल आधार है, यह खाद्य सुरक्षा के पीछे की ताकत, कृषि की सततता और किसान-खासकर छोटे किसानों की आय की सुरक्षा छतरी है।

नि:संदेह, मनुष्य एवं जीवों की भलाई कृषि के सुरक्षित बने रहने पर टिकी है। खेती इंसान और अन्य तमाम जीवों का अतीत न होकर भविष्य भी है। किसानों की जीत से यह ऐतिहासिक महत्ता जाहिर हुई है।

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