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देर से ही सही

यह बहस का विषय हो सकता है कि गुरु पर्व पर तीन विवादित कृषि कानूनों की वापसी राजनीतिक यू-टर्न है या मोदी सरकार का मास्टर स्ट्रोक, लेकिन हकीकत यह है कि एक साल से आंदोलित किसानों के धैर्य की अब और परीक्षा नहीं ली जानी चाहिए थी। भारत में खेती महज जीविका का साधन ही नहीं है, वह किसान की अस्मिता का प्रतीक भी है। कर्ज में डूबकर और आत्महत्याओं के बीच उसका खेती से जुड़े रहना, उसकी अस्मिता के प्रतीक होने की गवाही देता है। संभव है कि नरेंद्र मोदी के इस कथन में कोई भी दम हो कि हम इनके मकसद से किसानों को भरोसे में नहीं ले सके, लेकिन एक हकीकत यह भी है कि ये कानून जिस स्तर पर व्यापक विमर्श की मांग करते थे, वैसा नहीं हुआ।

मोदी सरकार यह भूल गई है कि भारत में खेती तर्कशीलता व आधुनिकीकरण के सवाल के इतर गहरी राजनीति का विषय भी रहा है। इस मुद्दे का राजनीतिकरण होना था और हुआ भी। लेकिन इस बीच इस मुद्दे पर बहस नहीं हुई कि ग्लोबल वार्मिंग संकट से खतरे में आती खेती को बचाने के लिये फसलों के चक्र में कैसे बदलाव होने चाहिए। लगातार गिरते जल स्तर के बीच परंपरागत फसलों के स्थान पर किन नकदी फसलों की जरूरत है। दरअसल, किसानों को वोट बैंक मानकर उसे लुभाने को मुफ्त के वायदे तो होते हैं, लेकिन किसान किन वजहों से आत्मघाती कदम उठा रहा है, उसकी चर्चा नहीं होती। इसमें दो राय नहीं कि खेती-किसान से जुड़ी अस्मिता के चलते ही देश में सबसे ज्यादा मुखर व्यापक आंदोलन पंजाब में हुआ। देश ही नहीं, पूरी दुनिया के पंजाबियों ने किसान आंदोलन के समर्थन में अपना-अपना योगदान भी दिया। यही वजह है कि प्रधानमंत्री ने इस घोषणा के लिये सिखों के पवित्र दिन गुरु पर्व को चुना। इस दिन को चुनने का मकसद जहां पंजाब के किसानों की जीवटता का सम्मान करना था, वहीं यह भी शायद कि गुरु पर्व पर क्षमा का लाभ केंद्र के साथ उपजी कटुता में मिल जाये।

बहरहाल, यह तय था कि केंद्र को ये कानून वापस लेने पड़ेंगे। विपक्ष ही नहीं, भाजपा के भीतर से भी कुछ ऐसी आवाजें आ रही थीं। खासकर मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक कई बार कह चुके थे कि सरकार को ही मानना पड़ेगा, किसान नहीं मानेंगे। किसान पृष्ठभूमि से आने वाले मलिक शायद पश्चिम उत्तर प्रदेश की किसान राजनीति का भविष्य पढ़कर यह कह रहे हों। सवाल केंद्र की वापसी की घोषणा के समय को लेकर भी उठे हैं। निस्संदेह पांच राज्यों के अगले साल होने वाले चुनाव तो इस फैसले की पृष्ठभूमि में हैं ही, इस माह के अंत में होने वाला संसद का शीतकालीन सत्र भी इसकी वजह हो सकता है क्योंकि दिल्ली की दहलीज पर चल रहे आंदोलन के एक वर्ष पूरा होने पर किसान आंदोलन तेज होने की आशंका बनी हुई थी, जिसका राजनीतिक दल भरपूर लाभ उठाने की तैयारी में थे। फिर भाजपा उ.प्र. को लेकर कोई जोखिम नहीं उठा सकती थी। पंजाब में उसके लिये खोने के लिये ज्यादा नहीं था, लेकिन सबको पता है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है। पश्चिमी उ.प्र. की कमान भाजपा के चाणक्य अमित शाह को सौंपना इसी कड़ी का हिस्सा है। दरअसल, दूसरी व तीसरे नंबर की सबसे अधिक संसदीय सीटों वाले राज्य पश्चिम बंगाल व महाराष्ट्र में सत्ता से छिटकने के बाद भाजपा की सारी उम्मीदें उत्तर प्रदेश पर केंद्रित हैं।

दूसरा, पंजाब हमेशा से भाजपा की प्राथमिकताओं में रहा है। यही वजह है कि पंजाब में अकाली दल भाजपा का सबसे पुराना साझीदार रहा है। सीमावर्ती राज्य की चुनौती को देखते हुए लालकृष्ण आडवाणी व प्रकाश सिंह बादल इस राज्य में नये राजनीतिक समीकरण बनाने को तैयार हुए थे। भाजपा नहीं चाहती थी कि किसान आंदोलन से उपजे आक्रोश के बीच फिर इस सीमावर्ती राज्य में अलगाववादी तत्वों को पनपने का मौका मिले। उनकी सक्रियता की खबरें विधानसभा चुनाव में बढऩे की आशंका जताई जा रही थी।

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