देहरादून। लोकभाषाओं को सम्मान सिर्फ सरकारी प्रयासों से नहीं मिलने वाला, इसके लिए हमें व्यक्ति एवं समाज के स्तर से पहल करनी होगी। हमें लोकभाषाओं के प्रति हीनता के भाव त्यागना होगा। तभी हम नई पीढी़ को अपनी संस्कृति एवं परंपराओं से जोड़ पाएंगे। इसकी शुरुआत हमें भाषण, गोष्ठी व सम्मेलनों से नहीं, अपने घर से करनी होगी। हमें यह बात कभी नहीं भूलनी चाहिए कि इस राज्य का जन्म ही लोक की स्वतंत्र पहचान कायम करने की मांग को लेकर हुआ।
यह बात हाल ही में वर्ष 2018 के प्रतिष्ठित संगीत नाटक अकादमी सम्मान से नवाजे गए उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी ने रविवार को उत्तरांचल प्रेस क्लब की ओर से क्लब सभागार में आयोजित संवाद कार्यक्रम में कही। उन्होंने कहा कि राज्य गठन के बाद इन इक्कीस वर्षों में गढ़वाली-कुमाऊंनी व अन्य लोक भाषाओं के उत्थान के लिए सरकारी स्तर से कोई जमीनी प्रयास नहीं हुए। आज हमारे पास लोकभाषा अकादमी तक नहीं है। उन्होंने इस बात पर खुशी जताई कि आज की पीढी़ युवा बडी़ संख्या में गढ़वाली-कुमाऊंनी लिख और गा रहे हैं। देश ही नहीं पूरी दुनिया में उत्तराखंडी लोकगायकों को बडे़ मानोयोग से सुना जा रहा है। उन्होंने इसमें सोशल मीडिया के योगदान को भी महत्वपूर्ण माना।
संवाद के तहत पूछे गए एक सवाल पर नेगी ने कहा कि उन्होंने हमेशा लोक पक्ष को तरजीह दी और लोक के साथ ही मजबूती से खडे़ रहने की कोशिश की। इसलिए उनके गीतों में लोक मुखर होकर उभरा है। यह लोक से मिले असीम प्यार का ही नतीजा है।
लोकगायक नेगी ने कहा कि उनके लिए सबसे बडा़ पुरस्कार लोक से मिला स्नेह है। इसलिए इस प्रतिष्ठित संगीत नाटक आकादमी सम्मान को वो लोक के उन स्तंभों को समर्पित कर रहे हैं, जो बिना किसी चाह के पूरे मनोयोग से बोली-भाषा के उन्नयन के लिए कार्य कर रहे हैं।
नेगीदा ने भाषा की समृद्धि के लिए सभी से आसन्न जनगणना के दौरान भरे जाने वाले फार्म के भाषा कालम में अपनी मातृभाषा गढ़वाली, कुमाऊंनी व जौनदारी दर्ज करने की भी अपील की। कहा कि इससे लोकभाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज कराने का मार्ग प्रशस्त होगा।